मौताणा – ये एक आदिवासी समुदाय में चलने वाली परम्परा है | इस परंपरा में लाश के बदले पैसे की मांग की जाती है | जो पूरे उदयपुर संभाग में, खास तौर पर आदिवासी बाहुल्य जिलों-प्रतापगढ़, डूंगरपुर और बांसवाडा में बहुप्रचलित है। दुर्घटना में या अप्राकृतिक परिस्थितियों में मौत हो जाने पर सारी की सारी आदिवासी आबादी 'दोषी' या अपराधी का तब तक घेराव रखती है, जब तक उसके द्वारा नकद मुआवजे और सारे समुदाय के लिए देसी-दारू का इंतजाम नहीं कर दिया जाता | इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों की तरफ़ से सौदेबाज़ी आम बात है। कई बार तो 'मौताणा' की रकम तय होने तक शव का अंतिम संस्कार तक नहीं किया जाता, भले इसमें कई कई घंटे लग जाएँ या कई दिन! जुर्माने की रकम कुछ सौ से कुछ लाख तक भी हो सकती है। आदिवासियों की 'जातिगत-पंचायत' ही बहुत बार छोटे-मोटे अपराधों का फैसला करती है और दोषियों पर जुर्माने ठोकती है, पुलिस-कचहरी का नंबर तो बाद में तब आता है, जब मामला जाति-पंचायत के हाथ से निकल जाय |
राजस्थान के आदिवासी इलाकों की परंपरा है मौताणा
राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में हर साल सैकड़ों मामलों में मौताणे को लेकर सौदेबाजी सामने आती है। इसमें मृत्यु के लिए जिम्मेदार को मौत का मुवाजा मौताणा देना होता है। मौताणा की कुल राशि का दस फीसदी पंचों में, पच्चीस फीसदी पीड़ित परिवार और बाकी कुटुंब के सभी लोगों में बराबर बांटी जाती है। मौताणा देने के लिए भी देने वाले के परिवार के सभी लोग रकम इकठ्ठा करते हैं। इसमें भी परिवार की नजदीकी के हिसाब से हिस्सा तय होता है। जिस परिवार से मौताणा लिया जाता है, उसे पच्चीस फीसदी देना होता है और बाकी परिजन और रिश्तेदार मिलकर देते हैं।
मौताणा ना देने पर जबरन लेते हैं चढ़ोतरा
मौताणा नहीं देने पर चढ़ोतरा नाजिल किया जाता है। जिसके अनुसार संबंधित परिवारों के घर लूटे जाते हैं और बाद में आग लगा दी जाती है। चढ़ोतरा में केवल परिवार के पुरुषों के साथ ही मारपीट की जाती है। महिला सदस्य और परिवार के बाहर के लोगों के साथ मारपीट नहीं की जाती। इस बारे में फैसले के सारे अधिकार पंचों के पास होते हैं।इस परंपरा में बदलाव के लिए आदिवासी समुदाय को एकजुट होना होगा |युवा पीढ़ी को जागरूक किया जाये तो अच्छा बदलाव आ सकता है |