शनिवार, 27 दिसंबर 2014

ईश्वर हृदय परखता है



हजरत मूसा ने एक दिन ग्रीष्म ऋतु में एक बूढ़े गड़रिये को ईश्वर की प्रार्थना करते देखा-वह कह रहा था-हे परमात्मन्, मैं आपको ढूँढ़ पाता तो आपकी वैसी अच्छी सेवा करता। आपके बालों में कंघी करता, आपके जूते साफ करता, आपके कमरे में झाडू लगाता और नित्य अपनी बकरियों का दूध शहद डालकर पिलाता।”

यह सुनकर मूसा को बड़ा क्रोध आया और बड़े कटु शब्दों में उसकी भर्त्सना करते हुए कहा-मूर्ख जवान को बन्द कर, अल्लाह निराकार है उसकी शान में ऐसी बातें न कह जैसी इनसानों के लिए कहा जाता है।”

बेचारे गड़रिये की किस्मत टूट गई। उसका धर्मावेश नष्ट हो गया। अपनी अल्यक्षता पर उसने सिर धुन डाला और हतोत्साह होकर घर चला गया।

इस पर अल्लाह न मूसा से कहा-तूने मेरी प्रतिष्ठा की रक्षा करने के बहाने मेरे एक उपासक को दुखी कर क्यों भगा दिया? ऐ जल्दवाज! मैंने तुझे शिक्षा देने भेजा था। मुझे जो सबसे अधिक नापसन्द है वह है-बिलगाव और परित्याग। सबसे बुरी बात है किसी को बलपूर्वक किसी मार्ग पर चलवाना। मैंने सृष्टि इसलिए पैदा नहीं की कि उनसे अपनी प्रशंसा या प्रार्थना कराऊँ। वरन सृष्टि का उद्देश्य यह था कि जीव मुझसे मिलने की महत्ता को समझ सके। यदि कोई उपासक बचपन की ड़ड़ड़ड़ से प्रार्थना करे तो इसमें क्या हर्ज है? मैं तो केवल हृदय परखता हूँ कि उसमें कितना सच्चा प्रेम है।

आत्मिक और लौकिक दोनों ही लाभ



अस्वाद-व्रत अपने आप में एक महान् व्रत हैं। महात्मा गाँधी ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की हैं और अपने सप्त महाव्रतों में इसे प्रमुख स्थान दिया हैं। सप्ताह में एक दिन भी इसे पालन किया जाय तो मन की संयम शक्ति और दृढ़ता बढ़ती हैं। यह बढ़ोत्तरी धीरे-धीरे मनुष्य में उन गुणों का भी विकास कर देती हैं जो महान् पुरुषों में होने ही चाहिये। अस्वाद-व्रत के दिन यदि एक ही समय भोजन किया जाय तो और भी उत्तम हैं। इससे पेट को विश्राम मिलेगा और राष्ट्र की खाद्य समस्या सुलझाने के लिए अन्न की मितव्ययिता का देशभक्ति पूर्ण सत्कर्म भी सहज ही बन पड़ेगा। दोपहर को भोजन लिया जाय, इसके अतिरिक्त सवेरे या रात को भूख लगे तो दूध, छाछ आदि कोई पतली चीज ली जा सकती हैं। दोपहर के भोजन में भी अनेक कटोरियाँ सजाने की अपेक्षा यदि रोटी के साथ शाक, दाल, दही , आदि में से कोई एक ही वस्तु लगा कर खाने के लिए रखी जाय तो और भी उत्तम हैं ।एक साथ अनेक प्रकार की चीजें खानें से पाचन क्रिया बिगड़ती हैं, यह सर्वविदित तथ्य हैं । स्वाद के लिए ही लोग नाना प्रकार के व्यंजन बनाते और थाल सजाते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से तो जितनी कम चीजें एक साथ खाई जाय उतना ही पाचन ठीक होता हैं। इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से भी और समय की दृष्टि से भी रोटी के साथ एक ही वस्तु लगाने के लिए रखी जाय तो अधिक उपयुक्त हैं।

अस्वाद व्रत का महत्व



आरोग्य ही नहीं, मन को वासना सक्त होने से रोकने की दृष्टि से भी यह आवश्यक हैं कि स्वादेन्द्रिय पर अंकुश लगाया जाय। इस दृष्टि से नमक और मीठा दोनों को ही छोड़ देना अच्छा रहता हैं। यह निराधार भय है कि इससे स्वास्थ्य खराब हो जाएगा । सत्य तो यह है कि इस संयम से पाचन क्रिया ठीक होती हैं, रक्त शुद्ध होता हैं, इन्द्रियाँ सशक्त रहती हैं, तेज बढ़ता हैं और जीवन-काल बढ़ जाता हैं। इनसे भी बढ़ा लाभ यह है कि मन काबू में आता हैं। चटोरेपन को रोक देने से वासना पर जो नियंत्रण होता है वह धीरे-धीरे सभी इन्द्रियों को वश में करने वाला सिद्ध होता हैं। जिस प्रकार पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में स्वादेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय ही प्रबल हैं, उसी प्रकार स्वाद के षट् रसों में नमक और मीठा ही प्रधान हैं। चटपटा, खट्टा, कसैला आदि तो उनके सहायक रस मात्र हैं। इन दो प्रधान रसों पर संयम प्राप्त करना षट् रसों को त्यागने के बराबर ही हैं। जिसने स्वाद और काम-प्रवृत्ति को जीता उसकी सभी इन्द्रियाँ वश में हो गई । जिसने नमक, मीठा छोड़ा, उसने छहों रसों को त्याग दिया, ऐसा ही समझना चाहिए। मन को वश में करने के लिए यह संयम-साधना हर साधक को किसी न किसी रूप में करनी ही होती हैं।

हमें भी इस दिशा में एक कदम उठाना ही चाहिए। आरम्भ में वह छोटा हो तो भी हर्ज नहीं। सप्ताह में एक दिन अस्वाद व्रत रखना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। रविवार या गुरुवार के दिन इसके लिए अधिक उपयुक्त हैं। उस दिन जो भी भोजन किया जाय उसमें नमक मीठा मिला हुआ न हो। उबले हुए आलू, टमाटर, दही, दूध उबले हुए अन्य शाक, बिना नमक, मसाले की अलौनी दाल आदि क साथ रोटी खा लेना बिलकुल साधारण सी बात हैं। दो चार बार चटोरापन की पुरानी आदत के अनुसार अखरेगा तो सही पर सन्तोष और धैर्य पूर्वक उस भोजन को भूख बुझाने जितनी मात्रा में आसानी से खाया जा सकेगा। दो चार बार के अभ्यास से तो वह अलौना भोजन ही स्वादिष्ट लगने लगेगा। अलौनेपन का अपना एक अलग ही स्वाद है और वह जिन्हें पसन्द आ जाता है उन्हें दूसरे स्वाद रचते ही नहीं।

नजर और नजरिया


एक बार की बात है। एक नवविवाहित जोड़ा किसी किराए के घर में रहने पहुंचा। अगली सुबह, जब वे नाश्ता कर रहे थे, तभी पत्नी ने खिड़की से देखा कि सामने वाली छत पर कुछ कपड़े फैले हैं – “लगता है इन लोगों को कपड़े साफ़ करना भी नहीं आता … ज़रा देखो तो कितने मैले लग रहे हैं?’’
पति ने उसकी बात सुनी पर अधिक ध्यान नहीं दिया।
एक-दो दिन बाद फिर उसी जगह कुछ कपड़े फैले थे। पत्नी ने उन्हें देखते ही अपनी बात दोहरा दी…. “कब सीखेंगे ये लोग कि कपड़े कैसे साफ़ करते हैं…!!”
पति सुनता रहा पर इस बार भी उसने कुछ नहीं कहा।

पर अब तो ये आए दिन की बात हो गई, जब भी पत्नी कपड़े फैले देखती भला-बुरा कहना शुरू हो जाती।
लगभग एक महीने बाद वे नाश्ता कर रहे थे। पत्नी ने हमेशा की तरह नजरें उठाईं और सामने वाली छत की तरफ देखा, “अरे वाह! लगता है इन्हें अकल आ ही गयी…
आज तो कपड़े बिलकुल साफ़ दिख रहे हैं, ज़रूर किसी ने टोका होगा!”
पति बोला, “नहीं उन्हें किसी ने नहीं टोका।”
“तुम्हे कैसे पता?” पत्नी ने आश्चर्य से पूछा।
“आज मैं सुबह जल्दी उठ गया था और मैंने इस खिड़की पर लगे कांच को बाहर से साफ़ कर दिया, इसलिए तुम्हें कपड़े साफ़ नज़र आ रहे हैं।”
ज़िन्दगी में भी यही बात लागू होती है। बहुत बार हम दूसरों को कैसे देखते हैं ये इस पर निर्भर करता है कि हम खुद अन्दर से कितने साफ़ हैं।
किसी के बारे में भला-बुरा कहने से पहले अपनी मनोस्थिति देख लेनी चाहिए और खुद से पूछना चाहिए कि क्या हम सामने वाले में कुछ बेहतर देखने के लिए तैयार हैं या अभी भी हमारी खिड़की साफ करनी बाकी है।

रविवार, 7 दिसंबर 2014

राष्ट्र के लिये निजी स्वार्थों का त्याग


रूस में जब क्रान्ति होकर चुकी तो नव निर्माण के लिये मशीनों की जरूरत पड़ी। मशीनें विदेशों से खरीदनी थीं। इसके लिए बदले में रूसियों को अपने यहाँ का कच्चा माल देना था। उन दिनों पशु और उनसे उत्पन्न होने वाली चीजें ही रूस के पास थीं जो बाहर भेजी जा सकती थीं। निदान उस देशवासियों ने स्वयं उनके बिना काम चलाने और दूध, मक्खन, माँस, खल, ऊन आदि चीजें बाहर भेजने का निश्चय किया। वह सब बाहर भेजा गया और मशीनें आईं। दस साल तक रूसियों ने बिना इन चीजों के काम चलाया। रूस भोजन और मोटे कपड़े पर गुजारा किया। यह बड़ाई ड़ड़डड़़ प्रिंस क्रोपाटकिन को भी दूध उपलब्ध न हो सका।

अंग्रेजी सेना जुडेफन के मैदान में लड़ रही थीं। सेनापति फिलिप सिडनी की जाँघ में गोली लगी। वे घायल होकर गिर पड़े। प्यास से उनका गला सुख रहा था। पानी की बोतल निकाल कर वे पीने ही वाले थे कि पास में पड़े एक दूसरे सैनिक को देखा जो उन्हीं की तरह घायल पड़ा था और बहुत खून निकलने से मरणासन्न दशा का पहुँच गया था। देखने से मालूम पड़ता था कि प्यासा वह भी बहुत है। फिलिप ने खिसक कर अपने हाथ की बोतल उसके मुँह में उड़ेल दी और कहा-मेरी अपेक्षा पानी की तुम्हें आवश्यकता अधिक हैं।

सुकरात को जब विष पिलाने की तैयारी हो रही थी तब उसे अपने एक कर्जदार का स्मरण आया जिससे एक मुर्गा उसने उधार लिया था। उसने अपने उत्तराधिकारियों को कहा-उस कर्जदार का कर्ज जरूर चुका देना। मैं ऋणी होकर नहीं मरना चाहता।

ईमानदार गरीब


सीलौन में एक जड़ी बूटी बेचकर गुजारा करने वाला व्यक्ति रहता था। नाम था उसका महताशैसा। उसके घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी। कई कई दिन भूखा रहना पड़ता। उनका माता चक्की पीसने की मजदूरी करती, बहिन फूल बेचती तब कहीं गुजारा हो पाता। ऐसी गरीबी में भी उनकी ड़ड़ड़ड सावधान थी।

महता एक दिन एक बगीचे में जड़ी बूटी खोद रहे थे कि उन्हें कई घड़े भरी हुई अशर्फियाँ गढ़ी हुई दिखाई दीं। उनके मन में दूसरे की चीज पर जरा भी लालच न आया और मिट्टी से ज्यों का ज्यों ढक कर बगीचे के मालिक के पास पहुँचे ओर उसे अशर्फियाँ गढ़े होने की सूचना दी।

बगीचे के मालिक लखेटा की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब हो चली थी। कर्जदार उसे तंग किया करते थे। इतना धन पाकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। सूचना देने वाले शसा का उसने चार सौ अशर्फियाँ पुरस्कार में देनी चाही। पर उसने उन्हें ड़ड़ड़ड़ दिया ओर कहा- इसमें पुरस्कार लेने जैसी कोई बात नहीं, मैंने तो अपना कर्तव्य मात्र पूरा किया है।

बहुत दिन बाद लखेटा ने अपनी बहिन की शादी शैसा के साथ कर दी ओर दहेज में कुछ धन देना चाहा। शैसा ने वह भी न लिया ओर अपने हाथ पैर की मजदूरी करके दिन गुजारे।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

छोटा और तुच्छ काम


काम वे छोटे गिने जाते है जो फूहड़पन और
बेसलीके से किये जाते हैं। यदि सावधानी,
सतर्कता और खूबसूरती के साथ, व्यवस्था पूर्वक
कोई काम किया जाय तो वही अच्छा,
बढ़ा और प्रशंसनीय बन जाता है।
चरखा कातना कुछ समय पूर्व विधवाओं और
बुढ़ियाओं का काम समझा जाता था, उसे करने
में सधवायें और युवतियाँ सकुचाती थी। पर
गाँधी जी ने जब चरखा कातना एक आदर्शवाद
के रूप में उपस्थित किया और वे उसे स्वयं कातने लगे
तो वही छोटा समझा जाने वाला काम
प्रतिष्ठित बन गया। चरखा कातने वाले
स्त्री पुरुषों को देश भक्त और
आदर्शवादी माना जाने लगा।
संसार में कोई काम छोटा नहीं। हर काम
का अपना महत्व है। पर उसे ही जब
लापरवाही और फूहड़पन के साथ
किया जाता है तो छोटा माना जाता है
और उसके करने
वाला भी छोटा गिना जाता है।

प्रेम

गृहस्थ जीवन की सफलता
गृहस्थ जीवन की सफलता के लिये, अनेक
कठिनाइयाँ होते हुये भी दाम्पत्य जीवन
को सुखमय बनाये रहने के लिये इस बात
की आवश्यकता है कि पति-पत्नि में प्रगाढ़ प्रेम
और अटूट विश्वास हो। इसी प्रकार जिस
कार्य में मनुष्य सफलता प्राप्त
करना चाहता है उसमें पूरा प्रेम होना और उस
कार्य के गौरव को समझना आवश्यक है।
जो कार्यक्रम अपनाया गया है उसे हलका,
ओछा, तुच्छ व्यर्थ और साधारण नहीं वरन् विश्व
का एक अत्यन्त आवश्यक और उपयोगी कार्य
मानना चाहिये। उसे करते हुये गर्व और गौरव
अनुभव किया जाना चाहिये दाम्पत्य प्रेम
की तरह हमें अपने कार्यक्रम में
भी पूरी निष्ठा, ममता अभिरुचि और
श्रेष्ठता भी रखनी चाहिये। यह भावनायें
जितनी ही गहरी होगी, कार्यक्रम
की सफलता में उतनी ही आशा बढ़ती जायेगी।

गुरु दीक्षा

एक महात्मा के पास तीन मित्र गुरु दीक्षा लेने
गये। महात्मा ने शिष्य बनाने से पूर्व
पात्रता की परीक्षा कर लेने के मन्तव्य से
पूछा बताओ कान और आँख में कितना अन्तर है?
एक ने उत्तर दिया-” केवल पाँच अंगुल का भगवान!
दूसरे ने उत्तर दिया- महाराज आँख देखती है और
केवल सुनते हैं इसलिये किसी बात
की प्रामाणिकता के विषय में आँख का महत्व
अधिक है।” तीसरे ने निवेदन किया -”भगवन्!
कान का महत्व आँख से अधिक है। आँख केव
लौकिक एवं दृश्यमान जगत को ही देख पाती है
किन्तु कान को पारलौकिक एवं पारमार्थिक
विषय का पान करने का सौभाग्य प्राप्त है।”
महात्मा ने तीसरे को अपने पास रोक लिया। पहले
दोनों को कर्म एवं उपासना का उपदेश देकर
अपनी विचारणा शक्ति बढ़ाने के लिए विदा कर
दिया। क्योंकि उनके सोचने की सीमा ब्रह्म तत्व
की परिधि में अभी प्रवेश कर सकने योग्य,
सूक्ष्म बनी न थी।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

नियत कर्तव्यों का पालन
क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल
को जिस दिन फाँसी लगनी थी उस दिन सवेरे
जल्दी उठकर वे व्यायाम कर रहे थे। जेल वार्डन ने
पूछा आज तो आप को एक घंटे बाद फाँसी लगने
वाली है फिर व्यायाम करने से क्या लाभ?
उनने उत्तर दिया- जीवन आदर्शों और नियमों में
बँधा हुआ है जब तक शरीर में साँस चलती है तब तक
व्यवस्था में अन्तर आने देना उचित नहीं है।
थोड़ी सी अड़चन सामने आ जाने पर जो लोग
अपनी दिनचर्या और कार्य व्यवस्था को अस्त-
व्यस्त कर देते हैं उनको बिस्मिल जी मरते मरते
भी अपने आचरण द्वारा यह बता गये है कि समय
का पालन, नियमितता एवं धैर्य ऐसे गुण हैं
जिनका व्यक्तिक्रम प्राण जाने
जैसी स्थिति आने पर भी नहीं करना चाहिए।
अपने सुख के लिए दूसरों के दुःख नहीं
सेवा ग्राम में गाँधी जी के पास एक कुष्ठ
रोगी परचुरे शास्त्री रहते थे। उनके कुष्ठ रोग के
लिए किसी ने दवा बताई कि- एक
काला साँप लेकर हाँडी में बंद किया जाय
फिर उस हाँडी को कई घंटे उपलों की आग में
जलाया जाय। जब साँप की भस्म हो जाय
तो उसे शहद में मिलाकर खाने से कुष्ठ
अच्छा हो जायेगा। गाँधी जी ने पूछा-
‘क्या आप ऐसी दवा खाने को तैयार है?’
शास्त्री जी ने उत्तर दिया- बापू!
यदि साँप की जगह मुझे ही हांडी में बन्द करके
जला दिया जाय तो क्या हानि है? साँप ने
क्या अपराध किया है कि उसे इस प्रकार
जलाया जाय?
परचुरे शास्त्री की वाणी में उस दिन
मानवता की आत्मा बोली थी। वे लोग
जो पशु पक्षियों का माँस खाकर अपना माँस
बढ़ाना चाहते हैं, इस मानवता की पुकार
को यदि अपने बहरे कानों से सुन पाते
तो कितना अच्छा होता।