अच्छी जमीन में भी पौधे तब उगते और बढ़ते हैं जब बीच, खाद और पानी की बाहर से व्यवस्था की जाती हैं। गुरु का कर्तव्य बीज, खाद और पानी की समुचित व्यवस्था करके शिष्य की मनोभूमि को हरी भरी बनाना होता हैं। माली जो प्रयत्न अपने बगीचे को हरा भरा बनाने के लिए करता है वही कार्य एक कर्तव्यनिष्ठ गुरु को भी अपने शिष्यों के लिए करना पड़ता हैं। आज गुरु शिष्य परम्परा एक विडंबना मात्र रह गई हैं। लकीर पीटने की तरह जहाँ तहाँ शिष्य-गुरु के अत्यंत दुर्बल आधार पर टिकी हुई परम्परा चिन्ह पूजा जैसी दिखाई पड़ती हैं। पर पात्रता के अभाव में उसका परिणाम कुछ भी नहीं निकलता और एक व्यर्थ की सी चीज बन कर रह जाती है। सत्पात्र शिष्य समर्थ गुरु की सहायता से जो लाभ उठा सकते हैं वैसा आज कितनों को मिलता हैं? कितना मिलता हैं? गाय अपना दूध बछड़ों के लिए निचोड़ देती है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य की श्रद्धा से द्रवित होकर अपना संग्रही प्राण उसके लिए निचोड़ देता हैं। गुरु शिष्य का पास-पास रहना इस दृष्टि से आवश्यक माना गया हैं। प्राचीन काल में साधारण ब्रह्मचारी गुरुकुलों में रहकर विद्याध्ययन करते थे और साथ ही गुरु का स्नेह एवं प्राण तत्त्व निरन्तर उपलब्ध करते रह कर अपनी आत्मा को सब प्रकार परिपुष्ट बनाते थे । समीपता का प्रभाव पड़ता ही है। प्रबल व्यक्तित्व और श्रेष्ठ वातावरण के सान्निध्य में रहने मात्र से जितना लाभ होता हैं उतना अस्त-व्यस्त स्थिति में रहने वाला व्यक्ति बहुत साधन अध्ययन और प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं कर सकता।
सोमवार, 12 जनवरी 2015
गुरु का योगदान
अच्छी जमीन में भी पौधे तब उगते और बढ़ते हैं जब बीच, खाद और पानी की बाहर से व्यवस्था की जाती हैं। गुरु का कर्तव्य बीज, खाद और पानी की समुचित व्यवस्था करके शिष्य की मनोभूमि को हरी भरी बनाना होता हैं। माली जो प्रयत्न अपने बगीचे को हरा भरा बनाने के लिए करता है वही कार्य एक कर्तव्यनिष्ठ गुरु को भी अपने शिष्यों के लिए करना पड़ता हैं। आज गुरु शिष्य परम्परा एक विडंबना मात्र रह गई हैं। लकीर पीटने की तरह जहाँ तहाँ शिष्य-गुरु के अत्यंत दुर्बल आधार पर टिकी हुई परम्परा चिन्ह पूजा जैसी दिखाई पड़ती हैं। पर पात्रता के अभाव में उसका परिणाम कुछ भी नहीं निकलता और एक व्यर्थ की सी चीज बन कर रह जाती है। सत्पात्र शिष्य समर्थ गुरु की सहायता से जो लाभ उठा सकते हैं वैसा आज कितनों को मिलता हैं? कितना मिलता हैं? गाय अपना दूध बछड़ों के लिए निचोड़ देती है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य की श्रद्धा से द्रवित होकर अपना संग्रही प्राण उसके लिए निचोड़ देता हैं। गुरु शिष्य का पास-पास रहना इस दृष्टि से आवश्यक माना गया हैं। प्राचीन काल में साधारण ब्रह्मचारी गुरुकुलों में रहकर विद्याध्ययन करते थे और साथ ही गुरु का स्नेह एवं प्राण तत्त्व निरन्तर उपलब्ध करते रह कर अपनी आत्मा को सब प्रकार परिपुष्ट बनाते थे । समीपता का प्रभाव पड़ता ही है। प्रबल व्यक्तित्व और श्रेष्ठ वातावरण के सान्निध्य में रहने मात्र से जितना लाभ होता हैं उतना अस्त-व्यस्त स्थिति में रहने वाला व्यक्ति बहुत साधन अध्ययन और प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं कर सकता।
शक्तिपात के सत्पात्र
योग शास्त्रों में शक्तिपात की चर्चा बहुत हैं समर्थ गुरु शक्तिपात के द्वारा अपने शिष्यों को स्वल्प काल में आशाजनक सामर्थ्य प्रदान कर देते हैं। सिद्ध योगी तोतापुरी जी महाराज ने श्रीराम कृष्ण परमहंस को शक्तिपात करके थोड़े ही समय में समाधि अवस्था तक पहुँचा दिया था। श्रीपरमहंसजी ने अपने शिष्य विवेकानन्द को शक्तिपात द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कराया या और वे क्षण भर में नास्तिक से आस्तिक बन गये थे। योगी मछीन्द्रनाथ ने गुरु गोरखनाथ को अपनी व्यक्ति गत शक्ति देकर ही स्वल्प काल में उच्चकोटि योगी बना दिया था। योग और अध्यात्मार्ग में ऐसे अगणित उदाहरण मौजूद हैं जिनमें समर्थ गुरुओं के अनुग्रह से सत्पात्र शिष्यों ने बहुत कुछ पाया हैं शिष्यों द्वारा सेवा के अनेकों कष्टसाध्य उदाहरण धर्म पुराणों में भरे पड़े हैं। इस प्रक्रिया के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा पड़ा हैं। शिष्य की श्रद्धा, कर्तव्य बुद्धि, कष्ट सहिष्णुता, उदारता एवं धैर्य की परीक्षा इससे हो जाती है और पात्र-कुपात्र का पता चल जाता हैं। जब धन दान के लिए सत्पात्र याचक तलाश किये जाते हैं तो प्राण-दान जैसा महान् दान कुपात्रों को क्यों दिया जाय? सत्पात्र ही किसी महत्त्वपूर्ण वस्तु का सदुपयोग कर सकते हैं। कुपात्र उच्च तत्त्व का न तो महत्व समझते हैं और न उन्हें ग्रहण करने में समुचित रुचि ही लेते हैं। ठेल ठाले कर कोई कुछ दे भी दे तो उसका स्वल्प काल में ही अपव्यय कर डालते हैं इसलिए अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति करने के लिए जहाँ समर्थ गुरु की नितान्त आवश्यकता रहती हैं वहाँ शिष्य की श्रद्धा एवं सत्पात्रता भी अभीष्ट हैं। दोनों ही पक्ष स्वस्थ हों तो प्रगति पथ की एक बड़ी समस्या हल हो जाती हैं।
मार्ग दर्शक की आवश्यकता
आध्यात्म मार्ग पर वास्तविक प्रगति करने के इच्छुक को किसी सत्पात्र मार्ग-दर्शक की तलाश करनी पड़ती हैं। इसके बिना उसका मार्ग रुका ही पड़ा रहता हैं। जब साधारण-सी स्कूली शिक्षा में अध्यापक की आवश्यकता रहती हैं, साइंस, रसायन, शिल्प, शल्यक्रिया, यंत्र-विद्या आदि सीखने के लिए किन्हीं अनुभवियों का सक्रिय मार्ग दर्शन आवश्यक होता है तो आत्म विज्ञान के छात्रों को शिक्षण की आवश्यकता क्यों ने होगी? पर खेद की बात यह है कि जैसे सच्ची लगन और श्रद्धा वाले साधक दिखाई नहीं पड़ते वैसे ही सत्पात्र गुरु भी अलभ्य हैं। उतावले शिष्य और ढोंगी गुरुओं की हर जगह भरमार है पर उनसे प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। ठोस प्रगति के लिए आधार भी ठोस ही होना चाहिए। जिन्हें सत्पात्र मार्ग-दर्शक मिल गये उनकी आयी पार हो गई ऐसा ही समझना चाहिये। गुरु अपने शिष्यों को शिक्षा तो देते ही हैं साथ ही अपने तप, पुण्य और प्राण में से भी अंश उसे प्रदान करते हैं। जैसे पिता अपनी कमाई का उत्तराधिकार पुत्र को छोड़ जाता है वैसे ही गुरु भी अपनी उपार्जित आत्म-सम्पदा का एक बड़ा भाग अपने शिष्यों को प्रदान करता है। इसी कारण गुरु को धर्म-पिता का स्थान दिया जाता हैं। जिस प्रकार पिता से पुत्र का गोत्र या वंश बनता है उसी प्रकार प्राचीन काल में गुरु से भी शिष्य का गोत्र बनता था, यही कारण हैं कि एक ही ऋषि के गोत्र विभिन्न वर्णों में पाये जाते हैं। यदि शिक्षा देना मात्र ही गुरु का काम रहा होता तो कदापि उन्हें इतनी महत्ता प्रदान न की जाती। पिता अपना वीर्य, पोषण स्नेह और उत्तराधिकार देकर ही पुत्र की श्रद्धा का भाजन बन पाता हैं । धर्म पिता-गुरु को इससे भी अधिक देना पड़ता है। वह अपनी आत्मा को शिष्य की आत्मा में और अपने प्राण को शिष्य के प्राण में ओत-प्रोत करता हैं। केवल साधना का मार्ग ही नहीं बताता वरन् आवश्यक शक्ति भी प्रदान करता हैं जिसके बल पर वह आत्मोन्नति के कठिन मार्ग पर सफलता पूर्वक अग्रसर हो सके। जिन्हें इस प्रकार की सहायता से वंचित रहना पड़ा उनमें से कोई विरले ही साधक सफलता प्राप्त कर सके अन्यथा आधार दृढ़ होते हुए भी उन्हें बीच में ही लड़खड़ा जाना पड़ा।
दृढ़ निश्चय और धैर्य
प्राणमय कोश के विकास के लिए प्राणायाम के साथ ही संकल्प साधना भी आवश्यक हैं। दृढ़ निश्चय और धैर्य के अभाव में हमारे कितने ही कार्य आज आरंभ होते और कल समाप्त हो जाते हैं,। जोश में आकर कोई काम आरंभ किया, जब तक जोश रहा तब तक बड़े उत्साह से वह काम किया गया, पर कुछ दिन में वह आवेश समाप्त हुआ तो मानसिक आलस्य ने आ घेरा और किसी छोटे-मोटे कारण के बहाने वह कार्य भी समाप्त हो गया। बहुधा लोग ऐसी ही बाल क्रीड़ाऐं करते रहते हैं। अध्यात्म मार्ग से तत्काल प्रत्यक्ष लाभ दिखाई नहीं पड़ता उसके सत्परिणाम तो देर में प्राप्त होने वाले तथा दूरवर्ती हैं। तब तक ठहरने लायक धैर्य और संकल्प बल होता नहीं इसलिए आध्यात्मिक योजनाएँ तो और भी जल्दी समाप्त हो जाती हैं। इस कठिनाई से छुटकारा पाने के लिए हमें संकल्प शक्ति का विकास करना आवश्यक हैं। जो कार्य करना हो उसकी उपयोगिता अनुपयोगिता पर गंभीरतापूर्वक विचार करें। ऐसा निर्णय किसी आवेश में आकर तत्क्षण न करें वरन् देर तक उसे अनेक दृष्टिकोणों से परखें। मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को सोचें और उनका जो हल निकल सकता हो उसे पर सोचें। अन्त में बहुत सावधानी से ही यह निर्णय करें कि यह कार्य आरंभ करना या नहीं। यदि करने के पथ में मन झुक रहा हो तो उसे यह भी समझाना चाहिए कि बात को अन्त तक निबाहना पड़ेगा। कार्य को आरंभ करना और जरा-सा आलस या असुविधा आने पर उसे छोड़ बैठना विशुद्ध रूप से छिछोरापन हैं। हमें छिछोरा नहीं बनना हैं ।वीर पुरुष एक बार निश्चय करते हैं और जो कर लेते हैं उसे अन्त तक निबाहते हैं। अध्यात्म मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है। इस पर चलना हो तो वीर पुरुषों की भाँति, धुन के धनी महापुरुषों की भाँति की बढ़ना चाहिए। छिछोरपन की उपहासास्पद स्थिति बनने देना किसी भी भद्रपुरुष के लिए लज्जा और कलंक की बात ही हो सकती हैं।
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